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श्रीवर्द्धमानस्वामिने नमो नमः । इस संसारमें जातीय, धार्मिक और सामाजिक चिरकाल स्थायी इनका कुल कार्यभार वस्तुगत्या उनकी मर्यादा पर ही निर्भर है । अत उस मर्यादाको जाननेके लिये तदनुसार प्रधानरूपसे प्रवृत्ति करनेके लिये प्राचीन आप्त आचार्योंने हरएक समय २ पर अनेक नीतिग्रन्थों एवं मर्यादापट्टोंको निर्माण किये । इसी पुरातन शिष्टाचारको ध्यानमें लेकर जैनाचार्यश्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने भी सब जगह स्वकीय-गच्छमें एक सदृश प्रवृत्ति चलती रहनेके लिये मालवी और मारवाड़ी सरल भाषामें स्वगच्छीयमर्यादापट्टक भी बनाया । जो नीचे दर्ज है- . ५४ स्वगच्छीय-मर्यादापट्टकं-३५समाचारी
श्रीहुजूर फरमावे हैं के साधु साध्वी श्रावक श्राविकाने मर्यादा पालणी तथा क्रिया करणी सो लिखते हैं, इस मुजब पालणी और करणी ॥
चैत्यवन्दनविधि(१) चैत्यवन्दन-नमुत्थुणं० अरिहंतचेइ० वंदणवत्तिक
अन्नत्थ० १ नोकारको काउस्सग्ग पारी नमोऽर्हथुइ १ लोगस्स० सवलो. वंदण० अन्नत्थ० १ नोका