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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी।
१७७ करण ७० सित्तरि रूप साधुके कर्मकाण्डके पालन करने में अतीव प्रशंसनीय सुन्दर उद्योग शुरू हुआ (५) और उत्तम शिष्योंके साथ भूमण्डल पर विचरना हुआ, उसमें आपश्रीके सदुपदेशसे जिनेश्वरोंके अनेक जीर्ण जिनालयोंके उद्धार हुए, स्थान स्थान पर नये २ उत्तम शिखरबन्ध जिनमन्दिर एवं धर्मशाला पाठशालाएँ आदि हुईं, और अनेक श्रावक श्राविकाओंको सम्यक्त्व रूप रत्नप्रदान पूर्वक साधुओंके पंच महाव्रत, श्रावकोंके द्वादश व्रत, एवं रात्रिमें भोजन वर्जन आदि यम नियम दिये, अतएव आपश्रीके हजारों श्रीसंघ अनुयायी बने (६) दुष्कर्मेन्धनवह्नितुल्यमकरोद्योऽनेकधा सत्तपः, सद्ग्रन्थाँश्च विनिर्ममे बुधमतान् राजेन्द्रकोषादिकान्
१--बेतालीस प्रकार की पिंडविशुद्धि ( ४२ दोष रहित आहारादि की गवेषणा करना) ४२, पाँच समिति ४७, द्वादश भावना ५९, बारह साधुप्रतिमा ६०, पाँच इन्द्रियों का निग्रह ६५, प्रतिलेखन ( पडिलेहण ) ६६, तीन गुप्ति ६९, और अभिग्रह (प्रतिज्ञा) ये ७० सित्तर । अथवा पक्षान्तरसे-दोष रहित आहार १, उपाश्रय २, वस्त्र ३, पात्र ४, इन की गवेषणा वो पिंडविशुद्धि ४, पाँच समिति ९, बारह भावना २१, बारह प्रतिमा ३३, पाँच इन्द्रियनिरोध ३८, पञ्चीस प्रतिलेखना ६३, तीन गुप्ति ६६, चार अभिग्रह (द्रव्य १, क्षेत्र २, काल ३, और भाव ४ ) इस प्रकार भी करण सित्तरि के भेद होते हैं।
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