Book Title: Rajendra Gun Manjari
Author(s): Gulabvijay
Publisher: Saudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 218
________________ श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी।। आहोरे गुरुपार्श्वमैत्य गदितं वृत्तं च संघं गुरुं, तद्वक्रत्वमवेक्ष्य तो पदमदात् श्रेपूज्यमस्मै मुदा । पूज्योपाधिमलश्चकार बहुधा सन्नीतिरीत्या सुधीदेशे मालवके मरीच विरहन सोऽगात्क्रमाजावराम्॥ बाद अपनी अन्तिमावस्थामें कुल गच्छका भार श्रीरत्नविजयजी को समर्पण करके श्रीदेवेन्द्रसूरिजी तो शहर राधनपुरमें देवलोक प्राप्त हो गये । पीछे गुरुश्री देवेन्द्रसूरिजीके पट्टधर श्रीधरणेन्द्रसूरिजीको विद्याभ्यास कराते हुए एकदा सं० १९२३ घाणेरावके चौमासेमें श्रीपूज्य और गुरुश्रीके परस्पर इनके विषयमें बहुत ही विवाद हो गया ॥ ३ ॥ अतएव गुरुश्री श्रीप्रमोदरुचिजी श्रीधनविजयजी आदि श्रेष्ठ यतियों के साथ घाणेरावसे विहार करके आहोरमें विराजित स्वगुरु श्रीप्रमोदसूरिजीके पास पहुंच कर गुरु व संघको सब पूर्वोक्त घटना कही, उन्हें सुनकर गुरु और श्रीसंघने श्रीपूज्य धरणेन्द्रसूरिजीकी निरंकुशता जानकर सं० १९२४ वैशाख सुदि ५ वुधवारके रोज सोत्सव सहर्ष श्रीरत्नविजयजीको श्रीपूज्य पदवी देकर ' श्रीविजयराजेन्द्रमूरि' नामसे सुशोभित किया। गुरुदेव भी उत्तम नीति रीतिके साथ श्रीपूज्य पदवीको अत्यन्त सुशोभित करते हुए अनुक्रमसे मारवाड़ मेवाड़ और मालवा देशोंमें विचरते हुए क्रमसे जावरा नगर पधारे ॥ ४॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240