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१७८ श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। ज्ञानध्यानबलेन भव्यसुखदं भाव्यादिकं सूदितं, यद्भक्तोऽजनि झाबुआक्षितिपति!ष्ट्यां सिरोहीनृपः७ - और गुरुश्रीने अष्ट कर्म रूप इन्धनको जलानेके लिये अग्निके समान नाना प्रकारके उत्तम २ तप किये । जैसे मारवाड़-देशान्तर्गत मोदरा गाँव के बनमें सुसाधुगुण युक्त श्रीधनविजयजी महाराजके सहित नानाविध उपसर्गों को सहन करते हुए गुरुश्रीने अनेक प्रकार के तप किये। इसी प्रकार शहर जालोर के पर्वतादिकों में भी जानना चाहिये। विद्वानों को अति माननीय श्रीअभिधानराजेन्द्रकोष' शब्दाम्बुधिकोश, प्राकृतव्याकरण आदि बहुत ही उपयोगिक
१-प्राणातिपात १, मृषावाद २, अदत्तादान ३, मैथुन ४, परिग्रह ५, और रात्रिभोजन ६, इन छःओंका सर्वथा त्रियोगसे त्यागरूप छः व्रत कहलाते हैं । पृथिवीकाय १, अप्काय २, तेजस्काय ३, वायुकाय ४, वनस्पतिकाय ५, और त्रसकाय ६, इन षट्कायके जीवोंकी रक्षा करना । स्पर्शेन्द्रिय १, रसनेन्द्रिय २, घ्राणेन्द्रिय ३, चक्षुरिन्द्रिय ४, और श्रोत्रेन्द्रिय ५, इन पाँच इन्द्रियों और लोभका निग्रह करना १८, क्षमा १९, भावकी विशुद्धि २०, पडिलेहण करने में विशुद्धि २१, सुसंयमयोग-युक्त २२, अकुशल मन २३, वचन २४, कायाका संरोध २५, शीतादि पीड़ा का सहन २६, और मरणान्त उपसर्ग सहन २७, इन सत्तावीस गुणोंसे जो साधु विभूषित हैं। वे ही भव्य जीवों के नमस्कार करने योग्य हैं, अन्य नहीं ।