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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी।
१४३ निजात्मोद्धारकार्योऽपि, विधेयो हि सुयत्नतः। एकीभूय मिथःस्थेयं, सम्मत्या सह सर्वदा ॥ ५५८ ।। पञ्चत्रिंशत्समाचार्या, वर्तितव्यं सुभावतः। बहुधैवं स्वशिष्याणां, शिक्षा दत्ताः सुवाञ्छया।।५५९।। __ बाद गुरुश्रीने अपना आयु समीप आया समझकर इस प्रकार साधुओंको उपदेश दिया-अन्तेवासिओ ! अब मेरे शरीरका भरोसा नहीं है, इस विषयके वचन मैंने तुमको पहिलेसे ही कह दिये हैं ॥ ५५६ ॥ वास्ते मद्य-अमल चड़स माजुम भंग आदि सब तरहके नशे, पाँच इन्द्रियोंके २३ विषय, चारों प्रकारके क्रोधादि कषाय, पाच निद्राएँ, और चार प्रकारकी विकथाएँ ये पाँच प्रमाद वर्जित बड़े ही यत्नसे शान्ति-क्षमा, मार्दव-कोमलता, आर्जव-सरलता, मुक्ति-निर्लोभता, तप, संयम, सत्य, शौच-द्रव्य भावसे पवित्र, अकिंचन-परिग्रह रहित और ब्रह्मचर्य पालन करना, ये दश प्रकारके साधुधर्म युक्त चारित्र
और उसकी पाँच समिति तीन गुप्ति रूप अष्ट प्रवचन माताके पालन करनेमें हमेशा महान् उद्योग करते रहना ।। ५५६ ।। शिष्यो ! जो मेरा कर्तव्य था वह मैंने मेरी शक्ति मजब पार पहुँचाया, अब वैसेही तुम लोगोंको भी उत्तम यत्नोंसे जिनशासनकी उन्नति करना चाहिये ॥ ५५७ ।। बड़े ही प्रयत्नसे अपने आत्मोद्धारके कार्य भी करते रहना, सदैव परस्परमें सुसंपसे एक दिल हो कर रहना ॥ ५५८ ॥ और