________________
१४२
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। चलिष्यति सुरीत्यैव, वर्धमानस्य शासनम् । एकविंशसहस्राब्दी-मिति शास्त्रेषु भाषितम् ॥५५३॥ संघमित्थं सुसन्तोष्य, गुरुराजो व्यथान्वितः। अहंजापं जपन्नस्था-त्सद्विचारे समाधिना ॥ ५५४ ।। ... जब गुरुश्री बोले ऐसा करना मेरे अधीन नहीं है, अन्तिम तीर्थंकर श्रीमहावीरस्वामीकी व्यवस्थाको याद करो यदि इस विषयमें सौधर्मेन्द्रकी वाणी भी निष्फल होगई तो मेरी कौन गिनती है ? ॥ ५५१ ॥ फिर मेरे पीछे संघको सदुपदेश देनेवाले शिष्य हैं-जो यथायोग्य धर्मकर्मके भारको वहन करनेके लिये समर्थ होंगे ।। ५५२ ॥ श्रीवर्धमानखामी का इक्कीस हजार वर्ष सुरीतिके साथ शासन चलता ही रहेगा ऐसा शास्त्रोंमें भी कहा है ॥ ५५३ ॥ इस प्रकार पीड़ा युक्त गुरुराज श्रीसंघको अच्छी तरह सन्तोष देकर जिनेन्द्रदेवका जाप जपते हुए समाधिसे उत्तम विचारमें रहे ।।५५४।। ४६-शिष्यसुशिक्षा, समाधिना स्वर्गारोहश्चउपादिशच साधूना-मित्थं ज्ञात्वान्तमागतम् । भो! नास्ति मेऽङ्गविश्वासो, यूयमुक्ताः पुरा मया ॥ यतिधर्मात्यचारित्र-तत्प्रसूपालनेऽनिशम् । महोद्यमं प्रकुर्यात, चाऽप्रमादाः सुयत्नतः ।। ५५६ ।। मत्कर्तव्यं यदासीद्धे !, यथाशक्ति कृतं हि तत् । युष्माभिरपि कर्तव्या, सद्यत्नैःशासनोन्नतिः।।५५७।।