Book Title: Rajendra Gun Manjari
Author(s): Gulabvijay
Publisher: Saudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh

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Page 206
________________ श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी । विजयसिंह सूरिस्त्वा -चार्यः श्रीविजयप्रभः । विजयरत्नसूरिस्तु, क्षमासूरिस्तु धीधनः ॥ ६२७ ॥ सूरिर्विजयदेवेन्द्रः, कल्याणसूरिरात्मवित् । प्रमोदाख्यस्तु तत्पट्टे, सूरेस्तु गुणभूषितः ॥ ६२८ ॥ ६१ श्रीविजयसिंहसूरिजी ६२ श्रीविजयप्रभसूरिजी ६३ श्रीविजयरत्नसूरिजी ६४ श्रीविजयवृद्धक्षमासूरिजी १६३ ६५ श्रीविजयदेवेन्द्र रिजी ६६ श्रीविजय कल्याणसूरिजी ६७ श्रीविजयप्रमोदसूरिजी ६२७-६२८ ॥ नन्दतादेव सद्राजिः, सूरीणामित्थमायतौ ॥ जिनादेशप्रवृत्तानां, श्रीवीरजिनशासने ॥ ६२९ ॥ तद्भक्तानां सदा चैषा, कल्पवल्लीव देहिनाम् । धर्मप्राप्रत्युपदेशेन, चिन्तितार्थप्रदायिनी ॥ ६३० ॥ इसी प्रकार वर्तमान जिनेश्वर - श्रीमहावीरस्वामीके शासन में आगामिक कालमें भी जिनेन्द्र भगवानकी आज्ञामें चलनेवाले आचार्योंकी उत्तम श्रेणी प्रतिदिन वृद्धिको प्राप्त हो और यह पट्टावलि उन आचार्योंके भक्त प्राणियोंके हमेशा धर्मप्राप्ति के उपदेश द्वारा कल्पवेलके समान उनके अतिशय मनोवांछित मनोरथों को पूर्ण करने वाली हो ॥ ६२९--६३० ॥

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