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१६४ श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी।
५१-प्रशस्तिःपट्टेऽस्य सद्गुणनिधिश्च महाप्रतापी, येन क्रियोद्धृतिरकारि तितीर्पणा वै । संदृब्धभूरिसमयोऽत्युपकारहेतो, राजेन्द्रसूरिरिह मे गुरुरीदृशोऽभूत् ॥६३१॥ स्वान्यदीयागमज्ञाता, विजितात्मा दयानिधिः । दशदिक्स्फूर्तिसत्कीर्तिः, पूज्योऽभूत्कोविदैरपि ॥ श्रीआहोरे बृहद्दीक्षा, दत्ता येन मरुस्थले । योगोद्वाही च सूत्राणां, स मे स्वान्तेऽनिशं वसेत्॥
प्रमोदसूरिजीके पाट पर उत्तम गुण निधान अतिशय प्रतापशाली संसारको तिरने की इच्छासे जिन्होंने क्रियोद्धार किया और महोपकारके कारण जिन्होंने 'प्राकृतमागधीअभिधानराजेन्द्रकोश' आदि अनेक ग्रन्थ बनाये वे श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज मेरे गुरु हुए हैं, स्वशास्त्रों और परशास्त्रों के अद्वितीय विद्वान्, जिन्होंने अपने आत्माको अन्त तक वशमें रक्खा, बड़े ही दयाके भण्डार, जिनकी दशों ही दिशाओं में निर्मल कीर्ति फैली हुई है, एवं वे पण्डितोंसे भी पूजनीय थे-जिन्होंने ही श्रीआहोर मारवाड़ में सं० १९५७ माघ सुदि वसन्तपंचभीके रोज बहुतसे साधु साध्वियोंके युक्त मुझे बड़ी दीक्षा दी और सूत्रोंके योगोद्वाहन