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१५२ श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी । सौधर्मादिसुरालये सुरगणा ये चापि वैमानिकास्ते सर्वेऽपि कृतान्तवासमवशा गच्छन्ति किं शोच्यते॥
उसके बाद सुबुद्धिशाली श्रीमद्दीपविजयजी महाराजने इस प्रकार श्रीसंघको अनित्यताका प्रतिबोध दिया, हे श्रीसंघ ! बड़े ही खेदकी बात है कि इस दुष्ट यमराजने जिनेश्वरोंको भी खा लिये ॥५८५॥ कहा भी है कि-तीर्थकर, गणधर, इन्द्र, चक्रवर्ती, वासुदेव और बलदेव इन महोत्तम पुरुषोंको भी इस कालने खालिये तो अन्य जीवोंकी बात ही क्या है ? कुछ नहीं ॥ ५८६ ॥ पाताल लोकमें वसने वाले असुरनिकाय आदि दश प्रकारके देव, यथेच्छ रमणशील व्यन्तर और वाणव्यन्तर ये सोलह प्रकारके देव, लोकमें उद्योत करने वाले सूर्य, चन्द्रमादि तारा पर्यन्त ज्योतिषी देव और सौधर्मादि देवलोकमें निवास करनेवाले वैमानिक देव, ये सभी सुरससुदाय परवशतामें होते हुए यमराजकी मुखरूप जलभैबरीके खड्डेमें प्रवेश करते हैं तो दूसरोंकी चिन्ता करनेसे क्या है ? कुछ भी नहीं॥ ५८७ ॥ नो विद्या न च भैषजं न च पितानो बान्धवानो सुता, नाभीष्टा कुलदेवता न जननी स्नेहानुबन्धान्विताः । नार्थो न स्वजनो न वा परिजनः शारीरिकं नो बलं, नो शक्तास्त्रुटितं सुराऽसुरवराः सन्धातुमायुध्रुवम्