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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी।
१५१ चन्दनसे रची हुई चिता में कपूर, अगर, केसर, चन्दन, कस्तूरी, देवदारु, आदि सुगन्धित पदार्थों से एवं बहुत से घृतके घड़ों से शोकमय पश्चात्ताप सहित श्रीसंघने वैकुण्ठी के साथ गुरुशरीरका अग्निसंस्कार किया ॥ ५८१ ॥ ५८२ ।। तदनन्तर तीनों ही काल में जिनेश्वर भगवान् के कहे हुए निश्चय और व्यवहार मार्ग में चलनेवाले श्रीसंघने लोक मर्यादा के आचार वश द्रव्यशुद्धि के लिये स्नान किया। क्योंकि-'जयवीयराय' के पाठ में जिनेश्वर भगवान से हमेशा प्रार्थना करने में आती है कि-हे भगवन् ! मुझ से लोक में विरुद्ध [अयोग्य] कार्य करने का त्याग बने ऐसा कहा गया है॥५८३।। उसके बाद गुरुमहाराज के गुणों को याद करते हुए सारे संसार को विनाशशील मानते हुए व अमूल्य रत्न को गमाये हुए पुरुष के समान श्रीसंघ धर्मशाला में आए ॥ ५८४ ॥
४८-अनित्योपदेशो गुरुमूर्तिस्थापनं च--- श्रीदीपविजयोऽथैवं, धीमान संघमबोधयत् । हन्ताऽनेनायिकालेन, जग्धास्तीर्थङ्करा अपि ॥५८५।।
यतः"तित्थयरा गणहारी,सुरवइणोचकिकेसवा रामा। कालेण य अवहरिया, अवरजीवाण का वत्ता ।।५८६।। ये पातालनिवासिनोऽसुरगणा येस्वैरिणो व्यन्तरा, ये ज्योतिष्कविमानवासिविबुधास्तारान्तचन्द्रादयः।