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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। अच्छे परिणामसे १९५६ की सालमें चतुर्विध श्रीसंघके हितार्थ मेरी बाँधी हुई ३५ गच्छकी मर्यादाओंमें चलना चाहिये । इस प्रकार शुभ चाहनासे स्वशिष्योंको नाना प्रकारकी सुशिक्षाएँ दीं ॥ ५५९ ॥ ज्ञाताऽज्ञातादियोगेन, भवदाशातनाः कृताः। क्षन्तव्यं पूज्य ! तद्दोषा-नस्माकन्तु दयावता ॥५६०॥ यतः-पम्हुढे सारणा वुत्ता, अणायारस्स वारणा । चुकाणं चोयणा होइ, निहुरं पडिचोयणा ॥ ५६१ ।। मयैताभिः सुशिक्षाभि-श्वेदात्मा वश्च दुःखितः। शिष्या ! वानुपयोगेन, क्षमध्वं मे तदागसम् ।।९६२।।
यह सुनकर शिष्य बोले-पूज्य ! धर्मगुरो ! जान अजान में मन वचन काया के योगोंसे आपश्रीकी तेंतीस आर्शतनाएँ की हों तो दयाशील आपश्रीको हमारे उन अप
१-१ गुरुके आगे आगे चलना, २ बराबरीसे चलना, ३ नजीक चलना, ४ आगे बैठना, ५ बराबरीसे बैठना, ६ नजीक बैठना ७ आगे खड़े रहना ८ बराबर खड़े रहना, ९ नजीक खड़े रहना, १० भोजन करते समय गुरुसे पहले चुल्लू करना, ११ गुरुसे पहले गमनागमन की आलोचना करना, १२ रात्रिमें गुरुके बुलाने पर जागते हुए भी न बोलना, १३ बात करने योग्य मनुष्यसे गुरुके पहले ही बातें करना, १४ गोचरी की आलोचना गुरुके पास न करके अन्य साधु के पास करना, १५