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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
बन्दाते हुए आपश्री जावरे पधारे । वहाँके श्रीसंघ ने सहर्ष अतीव भावसे आपश्रीका चौमासा करवाया, व्याख्यानमें विधियुक्त ' श्रीभगवतीसूत्र वाँचा ॥१०१-१०३ ।। संश्रुत्य यवनाधीशः, संघाऽऽस्यात्पूज्यवर्णनम् । प्रश्नोत्तरेण हृष्टस्सन्, सूर्यमुख्यादिकं ददौ ॥१०४॥ विहरन् मालवे देशे ऽनेकाञ्छ्राद्वान् प्रबोधयन् । असौ ज्ञानक्रियाभ्याम-मुमुदत्तन्मनस्सुधीः ॥ १०५॥ १२- श्रीधरणेन्द्रसूरेः शङ्कासमाधानम्
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ततो राजेन्द्रसूरेस्तु, श्री पूज्यस्यातिविस्तृता । चतुर्दिक्षु महाकीर्ति-भीतः पूज्यो हि तेन सः ॥१०६॥ यतयो ! मम पूजायां, महाहानिर्भविष्यति । किञ्च गह्रर एकस्मिन्नुभौ सिंहौ न तिष्ठतः ॥ १०७॥
यहाँ श्रीनवाब साहबने श्रीपूज्यजीका अति रमणीय वर्णन सुनकर उनसे प्रेश्न पूछे। उनके प्रत्युत्तरसे खुश होकर
१ नबाब - प्राणीमात्र में समभाव रखनेवाले आप जैसे महात्मा हमारे घरका आहार ले सकते हैं या नहीं ?
उत्तर——आहार-व्यवहार आचार और लोकमर्यादा पर अबलम्बित है । इसका आहार के बजाय विचार के साथ अधिक सम्बन्ध है । अन्त्यज होकरके यदि क्रियाकलाप को शुद्ध रखता और अभक्ष्य वस्तुओं को छोड़ देता है, वह ब्राह्मण