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श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
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श्रीभगवतीसूत्र के द्वितीय शतक के पांचवें उद्देशा में लिखा है कि
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असहिज- देवा - सुर-- नाग - सुवण्ण- जक्ख -- रक्खसकिन्नर - किंपुरिस - गरुल- गंधव्व महोरगादिएहिं देवगणेहिं णिग्गंथाओ पावयणाओ अगतिकमणिजा " टीका - असहिजेति - अविद्यमानं साहाय्यं परसाहाय्यकम् अत्यन्तसमर्थ - त्वाद् येषां ते, असहाय्यास्ते च देवादयश्च ' इसि कर्मधारयः १, अथवा व्यस्तमेवेदम् तेन असाहाय्याः आपद्यपि देवादिसाहायकानपेक्षाः, 'स्वयं कृतं कर्म स्वयमेव भोक्तव्यम् ' इत्यदीनमनोवृत्तय इत्यर्थः २, अथवा पाखण्डिभिः प्रारब्धाः सम्यक्त्वाविचलनं प्रति न परसाहायकमपेक्षन्ते, स्वयमेव तत्प्रतिघातसमर्थत्वात्, जिनशासनात्यन्तभावित्वाच्चेति ।
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ऊपर के पाठकी श्री अभयदेवसूरिजी महाराजने तीन प्रकार की व्याख्या की है । प्रथम व्याख्यामें उस तुंगिया नगरीके श्रावक अत्यन्त शक्तिशाली होनेसे देव, असुर - नाग, सुवर्ण, यक्ष-राक्षस - किन्नर - किंपुरुष, गरुल - सुवर्णकुमार, गंधर्व और महोरग आदि देवसमूहसे नहीं चल सकते । द्वितीय व्याख्या में उन देवतादिकसे आपत्ति काल में भी सहायता नहीं चाहते, क्योंकि अपना किया हुआ कर्म अपने को ही भोगना चाहिये, अतएव वे अपनी दीनता किसीको नहीं बतलाते । तृतीय व्याख्यामें पाखंडी लोग कितना ही क्यों न सतावें