________________
६७
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी । लोंसे वधाया ॥ २३६ । गुरुमहाराजने मोक्षके सोपान समान सिद्धाचल पर शीघ्रगतिसे चढ़कर संघके साथ विधि सहित आदिनाथजीको वन्दन किया ॥ २३७ ॥ भवसमुद्रसे तिरने के लिये नावके समान हरएक जिनमंदिरमें विराजित सभी जिनबिम्बोंके हर्षसे उत्तम दर्शन किये ।। २३८ ॥ सुन्दरैः स्तवनस्तोत्र-स्तुतिकाचैत्यवन्दनः । नाभेयस्य नुतिं चक्रे,सद्भावार्थविभूषिताम् ॥२३९॥ संपत्ति सकलीकर्तु, चक्रे सोऽष्टाहिकोत्सवम् । सप्तक्षेत्र्यां च वीयाय, यथाशक्ति निजं धनम् ॥२४० सुपात्रेभ्यो ददौ दानं, दानभूषणपश्चकैः । नेमिनाथसनाथं स, रैवताद्रिं ततोऽगमत् ॥ २४१ ।। शिवानेरिव तत्रापि, व्यधात्सर्व मुदैव सः । यात्रां विधाय सानन्दं, थिरापद्रं समाययौ ॥२४२॥ अत्रापि संघवात्सल्यं, जिना भावनान्वितम् । सोऽष्टाहिकोत्सवं चक्रे, गीतनृत्यादिमण्डितम् ॥२४३
पीछे गुरुजीने मनोहर स्तवन-स्तोत्र-स्तुति-चैत्यवन्दनादिकोंसे उत्तम भावार्थसे सुशोभित श्रीआदिनाथ भगवानकी स्तुति की ॥२३९॥ संघपतिने अपनी संपत्तिको सफल करनेके लिये अष्टाहिक महोत्सव किया, और अपनी शक्ति अनुसार सात क्षेत्रोंमें द्रव्य व्यय किया ॥२४० ॥ हर्षाश्रु भरे नेत्रोंसे १, अत्युल्लसित भावसे २, प्रेमके वचनोंसे ३, अतीव