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श्रीराजेन्द्रगुणमअरी । वहाँके कितनेक धर्मद्वेषी नामधारी श्रावकोंने गुरुसे वाद करनेके लिये पं० हेतविजयको बुलाया ॥ २८८ ॥ बाद उसने गुरुको पत्रद्वारा अनेक प्रश्न पूछे । गुरुजीने भी शास्त्रोंसे फौरन उनके जबाब दिये ॥ २८९ ॥ फिर वह दुर्मति कतिपय अज्ञ श्रावकोंसे प्रेरित होकर निश्चित किये हुए स्थान पर गुरुके साथ विवाद करने के लिये आया ॥२९०॥ लेकिन गुरुजी तो स्वशिष्यमण्डली सह पहिलेसे ही सभामें उपस्थित होगए थे। वादी के बहुत देरसे आने बाद उससे गुरुजी बोले-तुम्हारा कोन वाद है ? सो जल्द बोलो॥२९१॥ लेकिन बोले कौन ? वह तो गुरुको सूर्य तुल्य देखते ही घूघूके समान, मौनी बाबा हो गया और चौंक कर सभामें कुछ भी नहीं बोलसका ।। २९२ ।। कियद्भिः प्रेरितः सभ्यः, किञ्चिद्वक्तुं प्रचक्रमे । उतो गुर्वाज्ञयाऽवादीत्, श्रीदीपविजयो बुधः।।२९३॥ स्तुतिचर्चा विधातुं चे-दागतोऽसि वदाऽऽदिमे । प्राकृते थुइशद्वस्य, कथं सिद्धिस्तु जायते ॥ २९४ ॥ श्रुत्वैवं मौनमाश्रित्या-ऽस्थाच्छीर्षे हस्तमावहन् । यतीन्द्रविजयोऽप्यूचे, कथं सिद्धिस्तु संस्कृते॥२९॥ अनभ्यासेन तत्रापि, नो दत्त्वा किञ्चिदुत्तरम् । मौनोत्तमसमाचार्या, वकवृत्ताववर्तत ॥२९६ ॥