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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। २९-ज्ञान-जिनप्रतिष्ठा, पंन्यासपदार्पणं चजालंधरे च सुश्रद्धा-ऽऽरोपिता मोदिसम्मतिः। तदन्तेऽगान्मुदाऽऽहोरं, श्रीसंघामन्त्रणाद् गुणी।३३३॥ प्रस्तरज्ञानकोषस्य, चाऽस्योच्चैः शान्तिसद्मनः । प्रतिष्ठामकरोत्पूज्यः, शास्त्रोक्तविधिनोत्सवैः ।३३४। कोशेऽस्मिन्नागमीयानि, चाऽन्यानि विविधानि वै । नव्यानव्यानि वर्तन्ते, गौरव्या स्वनुकम्पया॥३३५।।
धातु, लेप, आदिसे बनाया गया जिन-बिम्ब विकलांग हो तो ज़रूर संस्कारके योग्य है । किन्तु काष्ठ एवं पाषाणसे उत्पन्न जिन-बिम्ब तो संस्कारके योग्य ही नहीं है ॥ ३३२ ॥
सं० १९५९ जालोरके चौमासेमें श्रीसंघमें उत्तम श्रीदेवगुरुधर्मकी श्रद्धा और मोदियोंके परस्परका क्लेश मिटा कर सुसम्पकी जड़ रोपी गई। बाद संघके अत्याग्रहसे सद्गुणी गुरुमहाराज सहर्ष आहोर पधारे ।। ३३३ ॥ यहा श्वेत पत्थरके ज्ञानागारकी और इसके ऊपर घूमटदार जिन-मंदिरमें धातुमय शान्तिनाथ आदि तीन बिम्बोंकी शास्त्रविधिसे सोत्सव प्रतिष्ठा की ॥ ३३४ ॥ इस ज्ञानभण्डागारमें ४५