Book Title: Rajendra Gun Manjari
Author(s): Gulabvijay
Publisher: Saudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh

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Page 146
________________ श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी । १०५ भवव्याख्यानशक्तिस्तु, स्तुत्याऽपूर्वा वशङ्करी । अतश्चेदृशकार्याणि कारितानि बहूनि भोः ! ||४०२ || अत्राssसीञ्जातिभेदोऽपि तं भङ्क्त्वैकीकृतोऽमुना । नवकारोपधानं च, विध्यानन्देन कारितम् ॥ ४०३ ॥ खुशी होते हुए गुरुदेव के दर्शनार्थ आए । उन पवित्र आचार्यको देख देखकर सहर्ष अनेक नियमोंको ग्रहण कर अपने २ स्थान पर गए || ३९८ ।। इस तरह गुरुदेवने चीरोला वासियोंको जाति रूप गंगा में प्रवेश कराकर अच्छी तरह पवित्र करादिये । अतएव वे सभी आजीवन पर्यन्त गुरुवर्यका महोपकार मानने लगे । ३९९ ।। इस शुभ कार्यसे गुरुने लोक में महान यश प्राप्त किया । पहले भी अनेक उत्तम साधुओंने एवं श्रावकोंने इन लोगोंको न्यातिमें लेने के वास्ते अपनी २ मत्यनुसार प्रयत्न किया था, लेकिन उनके अन्दर किसीको भी सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ । ४०० || ॥। ४०१ ।। आपश्रीकी व्याख्यान शक्ति तो लोगोंको वश करने वाली, अद्वितीय प्रशंसा के योग्य ही थी, अतः भो वाचकवृन्द ! इस तरहके अनेक शुभ कार्य कराये ॥ ४०२ ॥ यहाँ न्यातिमें वैमनस्य भी था उसको तोड़कर गुरुदेवने संघ में सम्प कराया और सविधि आनन्द पूर्वक नवकारका उपधान भी कराया ॥ ४०३ ||

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