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श्रीराजेन्द्रगुणमअरी। गये और गुरुदेवके उपदेशसे हजारों श्रावक श्राविकाएँ हुई ।। ४२२ ॥ उनमें कईएक श्रावक मार्गानुसारी, शुद्ध सम्यक्त्वधारी और द्वादश-व्रतधारी भी हुए। कितनेक जीवोंको हिंसा नहीं करना, झूठ नहीं बोलना, चौरी नहीं करना, परस्त्रीकी संगति नहीं करना, धनका परिमाण करना और कईयोंको रात्रिमें भोजन नहीं करना, इत्यादिक गुरूजीने नियम ग्रहण कराये । सो वे आज पर्यन्त बड़े ही यत्नोंके साथ उत्तम भावसे लिये हुए व्रत नियमादिकों को पालन कर रहे हैं । क्योंकि-इस संसारमें जैसे उत्तम पुरुषोंने शुद्ध मनसे व्रत ग्रहण किये हैं तो उन्हें वैसे ही अतिचारादिक दोष लगाये विना पालना चाहिये ॥ ४२३-४२५ ॥ अभूवन् यत्यवस्थायां, चतुर्मास्यः क्रमादिमाः । विकटे मेदपाटेऽस्मि-नाकोलाख्ये पुरे वरे ॥ ४२६ ।। इन्द्रपु- मुदा चैव-मुजयिन्यां दसोरके। उदयेऽपि पुरे वर्ये, नागौरे जैसले पुरे ॥४२७ ॥ पाल्यां योधपुरे ख्याते, श्रीकृष्णगढनामनि । चित्तोरे सोजते शंभु-गढे विक्रमपत्तने ॥ ४२८ ॥ __आपके यति अवस्थामें लिखित क्रमसे इक्कीस चातुर्मास हुए-संवत् १९०४ का चौमासा इस दुर्गम मेवाड़ देशस्थ नगर ‘आकोला' में हुआ, १९०५ का सहर्ष इन्दौर में, १९०६ उज्जैनमें, १९०७ मन्दसोरमें, १९०८ उदयपुरमें,