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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। आगच्छन्नेव रुग्ग्रस्तो-ऽभवत्पूज्यः स्वकर्मणा । प्रान्तेऽद्य श्वः प्रयातासौ, स्वर्गमित्यब्रवीजनः॥४६०॥ वेदनां सहमानोऽथ, सानुतापो यतीश्वरः । अत्राकस्मानिशीथेऽय-मायुःक्षीणादिवं गतः॥४६१॥ तृतीये प्रहरे रात्रे-रुदतिष्ठद् गुरुव॑तात् । कल्याणार्थ सदा रीत्या, ध्यानं कर्तुं समुत्थितः ॥४६२॥ ध्यानं कृत्वैकयामं स, शिष्यैरावश्यकं तथा । ततः प्रोचे गुरुश्चैवं, शिष्याः ! शृणुत मद्वचः॥४६३।।
फिर वे सत्यवादी श्रीपूज्यजी बोले कि मुहूर्त भी अच्छा नहीं है । लेकिन ऐसा जानते बूझते भी संघकी ओरसे रुपयोंके अति लोभ देनेसे आखिर वे वहाँ आए ॥ ४५९ ॥ आते ही श्रीपूज्य अपने कर्मयोगसे रोग पीड़ित हो गये । आखिर ये आज कल स्वर्ग धाम जानेवाले हैं ऐसा लोक प्रतिमुखसे बोलने लगे ॥ ४६० ।। बाद श्रीपूज्यजी मैं यहाँ कहाँ से आया ? ऐसा पश्चात्ताप युक्त कष्टको सहते हुए आधी रातके समय एकदम आयुः क्षय होनेसे देवलोक चले गए ॥ ४६१ ॥ गुरुदेव नियमसे रात्रिके तीसरे प्रहरमें उठते थे। सो हमेशाकी रीति मुजब कल्याणार्थ उस दिन भी ध्यानके लिये उठे ॥ ४६२ ॥ एक प्रहर तक ध्यानकर फिर शिष्योंके साथ 'आवश्यक' क्रिया किये बाद इस प्रकार शिष्योंको बोले कि-मेरे वचन सुनो ॥ ४६३ ॥