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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। २२ परिषह जीतने वाले गुरुदेवने क्रियोद्धार किये बाद अपनी जिन्दगीमें आगमोंमें कहे हुए प्रमाणसे साढ़े चार हाथकी एक कॉबली और उतनी ही बड़ी दो चादर एवं तीन वस्त्रोंको ही ओढ़ते थे ॥ ४७९ ॥ आपने अन्दाजन ढाई सौ से भी अधिक मनुष्योंको साधु बनाये थे। लेकिन आपकी क्रिया अत्यन्त कठिन होने से उसको पालन करने की असमर्थता से बहुतसे साधु शिथिलाचारी पीतवसनधारियों और ढूंढकोंमें चले गये ॥ ४८० ॥ इस समय में भी ७५ साधु और साध्वियाँ हैं, जो नगर ग्रामों में सहर्ष अनेक भव्य जीवोंके उपकारके लिये विहार कर रहे हैं ॥ ४८१ ।। ४०-पूर्वाचार्यवद्रचित-प्राकृतसंस्कृतग्रन्थनामानिपूर्वाचार्याः पुरा काले, लोकज्ञप्तितितंसया। शुद्धपद्धतिसंस्थित्य, धर्मरक्षणहेतवे ॥४८२ ।। निर्ममुर्बहुशास्त्राणि, रत्नभूतानि सद्धिया। यद्ग्रन्थैश्चाद्यपर्यन्तं, मिथ्यावादप्रलापिनः॥४८३ ॥ निरुत्तरीक्रियन्तेऽत्र, ह्यङ्गुलिध्वनिमात्रतः । तथायं सर्वशास्त्रज्ञो-ऽनेकशास्त्राणि निर्ममे ॥४८४॥ प्राकृतसंस्कृतग्रन्था-ऽऽख्यानं तत्र मयोच्यते। श्रीअभिधानराजेन्द्रे, बृहत्प्राकृतकोषके ॥४८५ ।। स्वेऽस्मिन् शब्दे स्ववृत्तान्तो-ऽनेकग्रन्थात्सुकर्षितः । तेनाऽस्य रचना ज्ञेया, बोधार्थमतिमला ॥४८६॥