________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
१३७ मधुर वाणीसे सदुपदेशदात्री स्थविरा मनोहर श्रीजी एवं और भी कई उत्तम २ साध्वियाँ थीं ॥५२९॥ बाद मेरेको कब कहाँ इस प्रकारके नररत्नके दर्शन होंगे मानो ऐसी गुरु संगतिकी चाहनासे एक ओर दुष्ट ज्वर भी आया । ५३० ॥ फिर श्वास और ज्वर ने वृद्धावस्थाके साथ अतीव प्रेम किया । गुरुश्री अकेले और एक ओर सहर्ष ये तीनों दुर्जन एक गोष्ठीकर मिलगये थे ।। ५३१ ।। अब वे तीनों महादुष्ट अपनी २ शक्तिको दिखाते हुए, प्रचुर औषध रूप दान देनेसे भी उन्होंने सुशान्तिका सेवन नहीं किया ॥५३२।। यतः-दुष्टानां तु स्वभावोऽयं, परकार्यविनाशनम् । यथा लोके सुवस्त्राणि, नित्यं कृन्तति मूषकः॥५३३ ॥ अङ्गारा अपि धौतास्ते, गङ्गानीरेऽतिनिर्मले। क्षारपिण्डैर्महातीक्ष्णै-र्भो ! भवन्ति किमुज्ज्वलाः ?॥ प्रतिघस्रं स्वसाम्राज्यं, समाधिक्येन चक्रिरे । ईदृश्यामप्यवस्थायां, स्वकृत्यं न ह्यसौ जहौ ॥५३५ ॥ क्योंकि-दुर्जनोंका यही स्वभाव है कि दूसरोंके कार्यका विनाश करना, जैसे लोकमें लोगोंके सुन्दर कपड़ोंको हमेशा निष्प्रयोजन चूहा काटा करता है।५३३॥ वाचकगण! महान् तीखे २ खारे पदार्थों (साबुनआदि) से अतिनिर्मल गंगाजलमें धोये गये कोयले भी क्या कहीं उजले होसकते हैं ? कभी नहीं, सारांश यही है कि-उन तीनोंने अपने स्वभावको नहीं छोड़ा