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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
वर्षमध्ये चतुःपञ्च - शतक्रोशी विहार्यसौ । एवमन्तिमपर्यन्तं, सुखेन विचचार सः ॥ ४७७ ॥ महाशीते च कालेऽपि षडावश्यकमौषधम् | विना वस्त्रं कृतं नित्यं, निर्जरार्थं स्वकर्मणाम् ||४७८||
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इसी प्रकार अपने साधु श्रावक आदिके सामने कार्य वश अपना आयुष्य भी बतलाया था - अब भी मैं भूमण्डल पर तीन वर्ष फिर विचरूंगा ।। ४७५ ॥ गुरुश्रीके पवन गतिके समान विहार से सभी लोग चकित होते थे । तरुण नर भी उनके पीछे चलनेके लिये किसी तरह समर्थ नहीं हो सकता था || ४७६ || गुरुदेव वर्षके अन्दर चार सौ पाँच सौ कोश अवश्य विचरते थे । इसी मुजब अन्तिम अवस्था तक सुख पूर्वक विचरते रहे || ४७७ ।। महान् कठिन शीतके समय में भी कपड़े के विना याने उघाड़े शरीर से ही अपने कर्मोको निवारण करनेके लिये दवाके समान हमेशा प्रतिक्रमण करते थे ।। ४७८ ।
कम्बलादि त्रिकं वस्त्रं, व्यधाजितपरीषहः । चतुर्हस्तमितं सार्ध - मागमोक्तप्रमाणतः ॥ ४७९ ॥ संयतं भवता चक्रे, सार्धद्वयशतं नृणाम् | भवत्क्रियातिकाठिन्यात्, किन्त्वगुस्तेऽन्यगच्छ के || सांप्रतं साधुसाध्योऽपि सन्त्यथो पञ्चसप्ततिः । पुरग्रामेषु भव्योपकाराय विहरन्ति वै ॥ ४८१ ॥
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