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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
श्रीनगरका चौसासा समाप्त होने बाद गुरुश्रीके अचानक बुरा भय पैदा करने वाला श्वास उठा ||५१८ ||
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यहाँके श्रीसंघ माण्डवगढ़ की यात्रा कराने के लिये आपसे प्रार्थना की पर श्वास होने पर भी उत्तम भावसे और अपनी धैर्यता से साहसिक पुरुषोंमें मस्तकमणिके समान आपने उस प्रार्थनाको स्वीकार कर जैसे गगन मण्डल में चलता हुआ पूनमका चन्द्रमा शुक्ल पक्षकी पन्द्रह तिथियोंसे शोभायमान हो, वैसेही आज्ञाकारी १५ शिष्योंके साथ सुशोभित होते हुए आपने भी यात्रा के लिये भूमंडल पर संघके साथ प्रयाण किया ।। ५१९-५२० ।। उनमें से कतिपय साक्षर गुणी मुख्य शिष्योंके सवर्णन - नाम - तपस्वियों में श्रेष्ठ व उत्तम गुणके भाजन तपस्वी मुनिश्रीरूपविजयजी थे इन्होंने गुरुश्रीके १९५८ आहोर के चौमासे में ३५ उपवास में सहर्ष २५ दिन तक १५ मुनियोंके लिये गोचरी लाकर दी थी, अतएव वे बड़े ही मुनिजनोंकी सेवा करनेवाले थे, तपस्याएँ तो इन मुनिजीने अपने जीवनमें नाना प्रकार की कीं और १९६४ रतलाम पंन्यास मुनिश्री मोहनविजयजी के चौमासेमें ४६ उपवास किये थे, तप में व खूब ही ज्ञानध्यान में लवलीन रहते थे, अन्त में वे मुनिश्री पारणा किये बाद वहाँ ही बोलते २ चित्त समाधिसे देवलोक पहुंच गये ।। ५१९-५२२ ॥