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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
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भव्य जीवोंको शिर्फ गुरुदेवकाअलौकिक ज्ञानगुण दिखाने के लिये कहा गया है || ४७२ ॥
३९ - गुरोरपूर्वध्यानविहारक्रियादीनामुत्कर्षतावर्तमाने तु नान्येषां केषाञ्चिद् ध्यानमीदृशम् । यत्प्रसादाद्विचित्रं च भाव्यभाविविलोकनम् । ४७३ |
वह्निज्वालां च कूकस्यां वर्षावर्षविनिर्णयम् । समलोकत जीवानां, लाभालाभसुखादिकम् ||४७४ ||
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वर्तमान समय में प्रायः दूसरोंमें इस प्रकारका ध्यान देखने में नहीं आता । जिस ध्यानके प्रभावसे जो विचित्र होनहारअनहोनहार को देखते थे || ४७३ || जैसे कि ध्यानस्थ गुरूदेवने धारराज्य नीमारदेशस्थ कूकसीमें प्रथम से ही अग्नि लगी हुई देखी, बाद वैसा ही हुआ । जल वरसेगा या नहीं वरसेगा इनका निर्णय कई वक्त बतलाया था और प्राणियों को लाभ या अलाभ होगा, एवं सुख या दुःख होगा इत्यादि ऐसे २ भाव अनेक वार देखते थे || ४७४ ॥ इत्थं कार्यवशादुक्तं, स्वायुः साध्वादिके स्वके । अथाऽहं त्रीणि वर्षाणि, विहरिष्यामि भूतले ||४७५ ॥ वायुगत्या विहारेण, तस्याऽऽसन् चित्रिताः समे । युवा मर्त्योऽपि तत्पृष्टं, कथं गन्तुं प्रशक्नुयात् ॥४७६ ॥