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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। ज्ञानध्यानरतो नित्य, शिष्याणां पाठयन्मुदा। पुरस्य बहिरारामे,-ऽतिष्ठत्संघहितेच्छया ॥४५६॥ आदिनाथप्रतिष्ठायै, गत्वा जयपुरं तदा। . विज्ञप्तिं विदधे संघः, सूरये जिनमुक्तये ॥४५७॥ ज्योतिषादि महद् ज्ञानं, हेऽस्ति राजेन्द्रसूरिके । नेतव्योऽहं न युष्माभि-विरूपश्चेद् भविष्यति।।४५८।।
जब गुरुजी १९५५ फाल्गुन वदि ५ के रोज आहोर नगरके बाहर रमणीय श्रीगोड़ीपार्श्वनाथजीके मंदिरमें ॥ ४५४ ॥ महानन्द पूर्वक महोत्सबके साथ शास्त्रोक्त विधि सहित साञ्जनशलाका प्रतिष्ठा किये बाद भी फाल्गुन मासमें नगरके बाहर बगीचे में सहर्ष सदैव ज्ञान ध्यानमें निमग्न अन्तेवासियोंको पढ़ाते हुए संघकी हित चाहनासे ठहरे थे ॥ ४५५-४५६ ॥ उसी मौके पर एक तर्फ आदिनाथजीकी प्रतिष्ठाके लिये अन्य संघने जयपुर जाकर खरतरगच्छीय-श्रीजिनमुक्तिसूरिजीसे विनति की ॥ ४५७ ।। तब संघको श्रीपूज्यजी बोले कि श्रीविजयराजेन्द्रसूरिजीको ज्योतिष आदिका बड़ा ही प्रबल ज्ञान है। अतः तुमको मुझे, वहाँ लेजाना योग्य नहीं, यदि लेजाओगे तो बहुत अशुभ होगा ॥ ४५८ ॥ सुमुहूर्तोऽपि नैवास्ती-त्यवादीत्सत्यवाद्यसौ। संघदत्तप्रलोभेन, जानन्नपि समाययो