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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी । संपूर्ण ज्योतिषविद्याके बलसे आपके दिये हुए मुहूर्तमें अञ्जनशलाका और प्रतिष्ठाएं की हुई आनन्द को ही देनेवाली हुई ॥ ४३९ ।। उनमें अनेक वार हजारों लोकोंके एकत्र होनेपर भी किसीके शिर दुखने मात्र की भी बाधा पैदा न हुई ॥ ४४० ॥ फिर अनेक ज्ञानभण्डारोंकी स्थापना, तपोंके उद्यापन, अष्टोत्तरी-शान्तिस्नात्र पूजा और अनेक जिनमंदिरादिकोंके जीर्णोद्धार भी हुए ॥ ४४१ ॥ जातिमें सम्प कराना, तीर्थसंघ आदि जैसे उत्तम २ कार्य गुरुमहाराजके उपदेशसे सैंकड़ों क्या वल्कि हजारों हुए ॥ ४४२ । इस प्रकार धर्म-कार्योंमें कई लाख रुपये श्रीसंघ द्वारा गुरुजीके सदुपदेशसे व्यय किये गये ॥ ४४३ ॥ पूज्योऽयं साधुचर्यासु, कटिबद्धोऽभवत्सदा । जानन्त्याबालवृद्धास्तु, तत्स्वरूपं सुमूलतः ॥ ४४४॥ ज्यायस्यामप्यवस्थायां, स्वीयोपकरणान्यपि । शिष्यैरवाहयन्नित्य-मुवाह स्वयमेव सः ॥ ४४५ ॥ शिथिलाचारसङ्गन्तु, नैच्छत्स्वप्ने कदाप्यसौ । अर्हच्छुद्धोपदेशं वै, लोकेभ्योऽदात्सुबोधिदम् ॥४४६।। सत्यज्ञानक्रियाऽऽड्यस्य, सर्वत्रोत्कर्षतैधत । याममात्रं रजन्यां स, निदद्रौ नहि वासरे ॥४४७।। स्वात्मीयगुणदस्यो, भीतिहेतोश्च योनिषु । मस्तकन्तु प्रमादारे-रामूलाच्छीघ्रमच्छिनत् ।।४४८॥