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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी।
१०७ परिसह होते हैं । वेदनीय कर्मके उदयसे चर्या १२ शय्या १३ तृणस्पर्श १४ क्षुधा १५ पिपासा १६ वध १७ रोग १८ शीत १९ उष्ण २० मल २१ और दंश [ डांश ] ये कठिन भयंकर २२ परीषह उदय आने पर मोक्षार्थी निर्ग्रन्थ साधुओंको सहर्ष सहने चाहिये ॥ ४०६-४०८ ॥ दया सपादविश्वा च, सुश्राद्धानां कथं भवेत् ? । सूक्ष्मस्थूला द्विधा जीवा, सूक्ष्मरक्षा भवेन्नहि ।।४०९॥ हिंसाऽऽरंभे न कल्पात्तु, सापराधे न चापरे । तेषां हिंसा च सापेक्षा, निरपेक्षा कचिन्नहि ॥४१०॥
सुगुरो! श्रावकोंके सवा विश्वाकी दया कैसे होती है ? उत्तर-सुश्रावक ! संसारमें पृथिवीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, ये ५ स्थावर जीव और द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय ये ४ त्रस जीव एवं ९ प्रकारके जीव हैं, इन्हें सर्वथा नहीं मारने वाले मुनिराजोंके ही इनकी संपूर्ण २० विश्वाकी दया पल सकती है । श्रावक लोग त्रस जीवोंको नहीं मारते हैं, परन्तु घर हाट हवेली आदिकोंके आरंभ समारंभ करते कराते समय स्थावर जीवोंका जरूर यत्न करें परन्तु त्रस-स्थावर जीवोंकी सर्वथा दया नहीं पाल सकते, इस लिये साधुओंकी अपेक्षा गृहस्थोंके १० विश्वाकी दया बाँकी रही । स्थूल जीवोंको संकल्पसे याने ' इस जीवको मार दूं' ऐसी बुद्धिसे नहीं मारते हैं, लेकिन आरंभ समारंभ