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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। चौमासा समाप्त होने बाद १५. शिष्यों युक्त आपश्री धर्म वृद्धिके लिये विहार कर झाबुआ नगर पधारे ॥३५२॥ यहाँ राजा और संघकी ओरसे किये गए उत्सवोंके साथ गुरूका नगर प्रवेश कराया और उनकी धर्मदेशनाको सुनकर भूप व संघ अति ही खुश हुए ॥३५३।। राजा धर्म श्रवणके लिये व्याख्यानमें अनेक वार आए। व्याख्यानके अतिरिक्त दूसरे मौके पर भी सहर्ष धर्मके प्रश्न पूछते थे ।। ३५४ ॥ कियतः शपथान् लेभे, गुरूणामुपदेशतः । बहौ च देवतास्थाने, पशुहिंसां न्यवारयत् ।। ३५५ ॥ गुरोरस्य स्वराज्ये च, बहुमानमकारयत् । भक्त्या चैतत्प्रतिच्छायां, पूजापाठे दधात्यसौ।।३५६।। पुरापि गुरुभक्तोऽयं, धर्मवुद्ध्या नृपस्सुधीः। अत्राञ्जनप्रतिष्ठायां, ददौ सर्वसहायताम् ॥ ३५७ ॥ तस्याद्यापि सुवासिद्धिं, स्मरत्येष गुरोधिया । प्राणिनां किल कालेऽस्मिन् , दुर्लभो गुरुरीदृशः।।३५८॥ ३२-बहुषु पुरग्रामेषु साञ्जनप्रतिष्ठाविधानम्पारिख-च्छोटमल्लेन, कारिते वृषभालये। प्रतिष्ठाऽकारि चैतेन, जावरापत्तने वरे ॥३५९ ॥
गुरूके उपदेशसे राजाने कइएक नियम भी लिये और बहुतसे देवी देवताओं के स्थानों पर पशुओंके वधको निवा