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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
स्थिरता में कितनेक धर्मके ईर्ष्यालु, निन्दक, दुर्जन, एवं अज्ञ, धर्मके मर्मसे अनभिज्ञ,
उपसर्गे कृतेऽप्यस्य, हानिः कापि तु नाऽजनि । त एवान्ते नतास्सर्वे, नेमुरेनं लसद्गुणम् ॥ ३४५ ॥ विवादे च जयं प्राप, सत्यधर्मप्रभावतः । यत्र यत्र गुरुश्चाऽगा-तत्र तत्र यशोऽजनि ॥ ३४६ ॥ नगर श्रेष्टिनो गेहे, गुर्जरीयप्ररूढितः गुरुरेष चतुर्मास, पर्यवीवृतदादरात् श्रीकदाग्रहदुर्ग्रह - शान्तिमन्त्रान्तु सज्जनैः । विशेषोदन्त उन्नेयः, श्रीराजेन्द्रारुणोदयात् ॥ ३४८ ॥ श्रीकृकसी पुरेऽनेन, सूरिवर्येण चारुणा । प्राकृतं शब्दशास्त्रं च, छन्दोबद्धं विनिर्मितम् ॥ ३४९ ॥
॥ ३४७ ॥
श्रावकोंने उपसर्ग किये तो भी गुरूको तो किसी प्रकारकी हानि नहीं पहुंची, अन्त में वे सभी सनम्र चमत्कारी गुणवाले गुरुको नमते हुए || ३४५|| जहाँजहाँ आपका शुभ गमन हुआ वहाँ वहाँ शास्त्रीय वाद विवादमें आपको जय और बहुत यश ही प्राप्त हुआ || ३४६ || फिर गुरुमहाराजने गुजरात देशकी प्रथाके अनुसार अत्यादरसे नगर सेठके घर पर चौमासा पलटाया ।। ३४७ ।। यहाँ का विशेष वृत्तान्त सज्जन पुरुषों को ' श्रीकदाग्रह दुर्ग्रहनोशान्तिमंत्र' और 'श्रीराजेन्द्र