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श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
तेनैकीभूय ते लोकाः, शिलालेखं विधाय वै । पट्टग्रामाद् बहिश्चक - श्रीरोलाग्रामवासिनः || ३८० || पुरा लक्षप्रदानेऽपि, रतलामनिवासिनाम् | विग्रहो नाशमत्किन्तु, कृते चैवमनेकशः ॥ ३८१ ॥ सार्धद्वयशताब्दानि, चाद्यावधि गतानि भोः ! । एवमेतत्कथां श्रुत्वा, दयालीनोऽभवद् गुरुः || ३८२ ॥ द्रुतं भावदयोत्पन्ना, निःस्वार्थैव तदात्मनि । येन केनाप्युपायेन, ह्येषामुपकरोमि वै
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यतः - "पद्माकरं दिनकरो विकचीकरोति, चन्द्रो विकासयति कैरवचक्रवालम् | नाभ्यर्थितो जलधरोऽपि जलं ददाति । सन्तः स्वयं परहिते सुकृताभियोगाः ॥ ३८४||
उस कारण रतलाम के पंचलोक एकत्रित हो एक शिला ऊपर लेख लिखकर पाट गाँव की वजहसे रतलाम संघने चीरोला गाँव के संघको जाति बाहर कर दिया || ३८० ॥ उसके बाद रतलाम संघको लाखों रुपये देने पर भी वह झगड़ा शान्त नहीं हुआ और इस प्रकार एक वार ही नहीं, किन्तु अनेक वार प्रपंच होने पर भी कलह नहीं मिट सका || ३८१ ॥ गुरुदेव ! उस बातक आज तक ढाई सौ ऊपर वरस बीत गये । इस मुजब चीरोला संघकी कथाको सुनकर गुरुराज दयामें लयलीन हो गए || ३८२ ।। और शीघ्र ही उनकी आत्मा में