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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी । तथैवोक्तं च विवेकविलासे
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नखाङ्गुलीबाहुनासा - ऽङ्घीणां भङ्गेष्वनुक्रमात् । शत्रुभिर्देश भङ्गश्च बन्धकुलधनक्षयः
।। ३३१ ।।
वड़गच्छ में अजितदेवसूरिजी के शिष्य विजयसिंहसूरिजीने इनकी प्रतिष्ठा की || ३२७ || और गाँव के बाहर जीर्ण जिनमंदिरमें महावीरस्वामी की मूर्ति अंगोपांगों से विकल होने से गुरुमहाराजने शास्त्रप्रमाणसे उनको अन्य योग्य स्थान पर स्थापन कर उनके स्थान में इसी पूर्णिमा के दिन तीर्थवृद्धि के लिये नवीन वर्धमान जिन-बिम्बकी अञ्जनशलाका सह प्रतिष्ठा की और उसके बाद प्राचीन मूर्तिका भी सुधारा करवाकर उसी मंदिर में विराजमान की गई ।। ३२८ ॥ ३२९ ॥ लेकिन इस शुभकार्य से कतिपय धर्मद्वेपी दुर्जन लोक गुरुकी निन्दा करते हैं वे शास्त्रोंके तथ्यको नहीं जानते । अतः वे केवल नरपिशाच व घूघूके तुल्य दिखलाई पड़ते हैं ।। ३३० ॥ देखो ' विवेकविलास ' क्या बोलता है - नख, अङ्गुली, बाहु, नासिका और चरण, इनका भंग होने पर क्रमसे ये फल होते हैं - शत्रुओंसे देशका भंग, बन्धनमें पड़ना, कुल और धनका नाश होता है ।। ३३१ ॥
धातुले पादिजं बिम्बं व्यङ्गं संस्कारमर्हति । काष्ठपाषाणनिष्पन्नं, संस्कारार्ह पुनर्नहि ॥ ३३२ ॥