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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। सुनिये ॥ ३१६ ॥ ॥ ३१७ ॥ आपको जनसाधु यात्रियोंका कर नहीं लेना चाहिये, कारण वे निर्ग्रन्थ-याने रुपया पैसा के त्यागी होते हैं, ऐसा सुनकर राजाने 'हाँ' कहकर गुरुके वचनका आदर किया ॥ ३१८ ॥ महानुभावो ! इस कलियुगमें इस प्रकारके गुरु मिलना अति दुर्लभ हैं, ये तो लोगों के भाग्ययोगसे ही एक आदर्श रूप हो गए ॥३१९॥ ___सं० १९५८ आहोरके चौमासामें अनेक तरहसे धर्मका उद्योत हुआ । फिर संघने उत्सबके साथ आपश्रीसे पहिला उपधान भी कराया ॥ ३२०॥ कोस्टाके संघने बहुत धन लगाकर एक जिनमंदिर बनवाया वह ऊंचाईमें मेरुके समान, पृथ्वी रूप स्त्री के मस्तककी वेणी समान, अद्वितीय ही शोभा देरहा है ॥ ३२१ ॥ नन्दबाणनवैकाब्दे, माधवे पूर्णिमातिथौ । प्रतिष्ठामादिनाथस्य, चक्रेऽसौ विधिनोत्सवैः ।।३२२॥ रुद्रनन्दैकवर्षेऽत्र, ज्येष्ठशुभ्राष्टमीतिथौ । ऋषभः संभवः शान्ति-निर्गताःखननाद्भुवः ।३२३॥ कायोत्सर्गेण राजेते, द्वौ बिम्बौ पार्श्ववर्तिनौ । एतयोरासने लेखः, प्रतिष्ठासूचकोऽस्त्यसौ ॥ ३२४ ॥ विक्रमाब्दे गुणाब्धीशे, वैशाखे मासि सूत्तमे । शुभ्रपक्षद्वितीयायां, गुरुवारे च मञ्जुले ॥३२५ ॥