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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। बनवाया सुविधिनाथ जिनेन्द्र भगवानके मंदिरका जीर्णोद्धार आपश्रीके शुभोपदेशसे संघने करवाया । एवं उसके चारों ओर २४ जिनेश्वरोंकी छोटी छोटी २४ देहरियां बनवायीं और इनमें संवत् १९५८ माघ शुदि १३ के रोज प्रतिमाएं भी सविधि महोत्सवके साथ आपश्रीके करकमलोंसे ही स्थापित हुई ॥ २८४ ॥ २८५ ।। उसमें सित्तर हजार रुपयोंकी आमदनी जिनमंदिरमें हुई और छात्रोंको ज्ञान देनेवाली एक पाठशाला भी संघने स्थापन की ।। २८६ ॥
एक समय गुरुमहाराज विचक्षण शिष्यों के संग ग्राम नगर विचरते हुए वाली शहर पधारे ॥ २८७ ॥ कियन्तस्तत्र धर्मा-लवः श्राद्धास्त्वनेन वै । वादायाऽऽकारयामास, श्रीहेतविजयाह्वयम् ॥२८८॥ ततोऽपृच्छद बहून् प्रश्नान्, दलैः सार्धं गुरुं प्रति । दत्तानि गुरुणा शास्त्रैः, प्रतिवाक्यानि शीघ्रतः।२८९॥ पुनः स दुर्धिया युक्तः, श्रावकैः प्रेरितो जडैः। विवादं नियतस्थाने, गुरुणा कर्तुमागतः ॥२९० ।। पूर्वमेव गुरुगोष्ठ्यां, सशिष्यैः समुपस्थितः। सोऽमुना गुरुणा प्रोक्तः, कस्ते वादो वद द्रुतम् ।२९१॥ सूर्यरूपे गुरौ दृष्टे, घूकरूपोऽजनिष्ट सः। सभायां चकितो जातः, किश्चिद्वक्तुं शशाक नो।२९२।