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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी । यो यच्छिष्यैर्विवादन्तु, कर्तुं नाऽलमभूद्यदा । स वादी गुरुणा साधू, चर्चा कर्तुं किमर्हति ? ॥३०३ ॥ चेदाखुः स्वबलेनेलां, मेरुं चापि प्रकम्पयेत् । शेषवक्त्रचपेटाद-स्तर्हि सोऽपि गुरुं जयेत् ॥ ३०४॥ नम्रीभूय ततोऽन्ते स, सुखपृच्छादिपूर्वकम् । बद्धाञ्जलिश्च गुर्वग्रे, नमयामास मस्तकम् ॥ ३०५ ।। बहुघस्रान्ममेच्छाऽऽसीद् , भवत्सद्दर्शनस्य वै । सत्पुण्यात्साऽद्य पूर्णाऽभू-तुष्टावैवं गुरुं मुदा ॥३०६॥
इस मौके पर सभ्य जन इस प्रकार इस वादी की निर्बलताको देखकर परस्परमें संकेतके साथ अपने अपने दिलमें हँसते थे ॥३०२॥ जो वादी जिनके शिष्योंसे भी वादके लिये समर्थ नहीं है, वह गुरुमहाराजके साथ चर्चा करनेके लिये कैसे योग्य हो ? नहीं, सर्वथा नहीं ।।३०३॥ हाँ यदि चूहा अपने बलसे पृथ्वी और सुमेरुको कम्पायमान करे या शेष नागके मुखपर थाप देवे तो वादी गुरुसे जय पावे, नहीं तो नहीं ॥ ३०४ ॥ अन्तमें हाथ जोड़े हुए वादीने गुरुके आगे नम्र होकर सुखशातादिके प्रश्न युक्त मस्तक नमाया ॥३०५॥ और बोला कि-आपश्रीके दर्शनकी मेरे बहुत दिनोंसे इच्छा थी, वह पुण्ययोगसे आज पूर्ण हुई, एवं सहर्ष गुरुकी खूब स्तुति की ॥ ३०६ ॥