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श्रीराजेन्द्रगुणभञ्जरी । चाहनासे गुरुजी हरएक गाँवके संघकों उपदेश देते हुए क्रमसे संवत् १९५४ चैत्र वदि १० के रोज संघ के साथ गुणसंपन्न गुरुने श्रीपार्श्वनाथजीको विधिसे वन्दन किया ॥ २७२-२७३ ॥ संघभक्तिजिना दौ, सादरणामितंपचाः। संघश्रेष्ठो गुरूक्त्यासौ, विदधेऽतिधनव्ययम् ॥२७४॥ यात्रां कृत्वा सुखेनैवं, स चाऽऽगत्य निजं पुरम् । संघभोज्यादिकंसर्व, चक्रेत्रापि यथोचितम्॥२७५।। ददत्पूज्यः प्रतिस्थानं, प्राणिनां धर्मदेशनाम् । विदधे जिनधर्मस्य, महादीप्तिं पदे पदे ॥२७६ ॥ २५-नवशतार्हद्विम्बाऽञ्जनशलाका प्रतिष्ठा
पञ्चत्रिंशद्--गच्छसमाचारीबन्धनं चअमुष्य गुरुराजस्य, प्रसादाद् गुणशालिनः । आहोरे सून्नतिर्या या, तांतां वक्तुंक्षमेत कः ?॥२७७॥
वहाँ गुरुमहाराजके वचनसे उदार चित्तसे चाँदमलजीने संघभक्ति जिनपूजा आदि शुभ कार्यों में खूब ही धन खर्च किया ॥ २७४ ॥ इस प्रकार यात्रा कर सुखसे अपने गांव आकर भी स्वामिवात्सल्य आदि कुल यथोचित शुभ कार्य किये ।। २७५ ॥ एवं पूज्यवर्यने स्थान २ पर प्राणियोंको धर्मोपदेश देते हुए हरजगह जिनधर्मका बड़ा ही उद्योत