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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। मासत्रय्याहितश्चौरै-गृहीतैर्भटयत्नतः । अथेभ्यस्य समं वित्तं, धराधीशेन दापितम् ॥ २६२ ।। प्रससार प्रभावश्च, पुण्यमूर्तेरमायिनः ।। श्वेताम्बरी जयं लेभे, चूलाद्रेस्तीर्थविग्रहे ॥ २६३ ॥
बस इस सदुपदेशसे सेठने भी संवत् १९५३ वैशाख सुदि ७ चन्द्र वारके रोज बहुत द्रव्य व्यय पूर्वक महोत्सबके साथ अति हर्षसे इन सुविज्ञ गुरुमहाराजसे विधि युक्त शुभ समयमें वासुपूज्य भगवानकी प्रतिष्ठा करवाई ॥ २५९ ।। २६० ॥ बाद विनीत शिष्योंके साथ गुरुराज तो कहीं अन्यत्र विचर गए और सेठ भी सुख पूर्वक धर्मध्यान करने लगा ॥२६१ ॥ पीछे तीन मासके बाद स्वयमेव राजके सुभटोंने उन चौरोंको पकड़े और राजाने सेठका कुल धन दिलवाया ॥ २६२ ।। अतएव उन निष्कपट पवित्र मूर्ति गुरुदेवकी लोकमें सर्वत्र वचनसिद्धि की महिमा फैल गई ॥२६३॥ और बावनगजा चूलगिरितीर्थ के लिये श्वेताम्बर और दिगम्बर जैनों के बीच मुकदमा सन् १८६० में बढ़वानी हाईकोर्टमें पेस हुआ । उसमें आपके दिये हुए पुख्ता अकाट्य प्रमाणोंको देखकर सन् १८९४ में आखिरी चुकावा दिया कि चरणपादुका व चूलगिरिका स्वामित्व हमेशाके मुआफिक श्वेताम्बरजैनोंका ही है । अतः गुरुदेवके अनुभावसे श्वेताम्बरी जैनसंघ जय को प्राप्त हुआ। इस फेसले की मयमिसलके असली कोपी आहोर(मारवाड़)के बृहद्ज्ञानभंडारमें सुरक्षित है ॥२६३॥