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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। तदिभ्योदन्तमाकर्ण्य, गुरुरेवमुवाच तम् । चिन्ताजालं सदा हेयं, भावी भवति नान्यथा॥२५७॥ नाऽतः शोच्यं पुनस्तेऽदः, पश्चाद्रव्यं तु लप्स्यसे । प्रतिष्ठां कारय श्रेष्ठिन् !, शुद्धचित्तेन तद्भुतम् ॥२५८॥
सुन्दर गाँव कडोदमें पौरवाल गोत्रीय-श्रेष्ठिवर्य उदयचन्दजीने सौधशिखरी जिनालय बनवाया ॥२५४॥ उसकी प्रतिष्ठाके समीप उसके घर पर अकस्मात् चौरोंकी धाड़ पड़ी, चौरोंने अशी हजारके मालकी चौरी की ॥ २५५ ॥ उस कारण सेठके मनमें अतीव चिन्ता पैदा हुई, वहांपर तीसरे दिवस शिष्यों युक्त गुरुमहाराज पधारे ॥२५६ ।। उस सेठका वृत्तान्त सुनकर गुरुजी उसको इस प्रकार बोले कि-सेठ ! चिन्ता हमेशा त्याज्य है क्योंकि होनहार कभी नहीं टल सकता ॥ २५७ ।। इस लिये शोच नहीं करना चाहिये फिर तुम जो निर्मल मनसे शीघ्र प्रतिष्ठा करा दो तो यह तुम्हारा धन तुमको पीछा मिल जायगा ॥ २५८ ।। उपदेशात्ततः सोऽपि, बहुव्ययमहामहै। वैशाखसितसप्तम्यां, चन्द्रवारेऽतिहर्षतः ॥ २५९ ॥ तां प्रतिष्ठां सुवेलायां, वासुपूज्यजिनस्य वै । विधिना कारयामास, सद्विदा गुरुणामुदा ॥२६०॥ विजहार ततोऽन्यत्र, गुरुराजो विनेयकैः। . स इभ्योऽपि सुखेनैव, धर्मध्याने त्ववर्तत ॥ २६१ ॥