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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। श्रद्धालौ खाचरोदे च, पुरे राजगढे पुनः। . बभूवतुश्चतुर्मास्यो, कोशनिर्माणहेतुना ॥२५३ ॥
अत्यानन्द पूर्वक महोत्सवके साथ सविधि वह प्रतिष्ठा समाप्त की गई। वहाँ शुभ मुहूर्तानुभावसे गुरुजीकी जय हुई ॥ २४९ ॥ तैसेही गुरूपदेशसे इन वनाजीने अपने न्यायो. पार्जित द्रव्यद्वारा मंदिरके नीचे धर्मशाला भी करवाई ॥२५०॥ १९४८ आहोर के चातुर्मासमें बहुत धर्मोद्योत हुआ, और अनेक श्रावक श्राविकाएँ सम्यक्त्व युक्त द्वादश व्रतधारी हुए ॥ २५१ ॥ १९४९ निम्बाहेड़ाके चौमासामें लुम्पकनन्दरामके साथ मूर्तिमान्यता विषयिक चर्चा हुई, अन्तमें उसे जीतकर जैनमंदिरमार्गी ६० घर बनाये गये ॥ २५२॥ १९५० का चौमासा श्रद्धालू खाचरोदमें हुआ और १९५१-५२ ये दो चौमासे राजगढ़ में ' अभिधानराजेन्द्र ' कोष बनाने के कारणसे हुए ॥ २५३ ॥
२३--प्रतिष्ठानुभावः संघनिर्गमश्चकडोदेऽथ वरे ग्रामे, पौरवालकुलोद्भवा । सुश्रेष्ठ्युदयचन्द्रेण, कारितः श्रीजिनालयः ॥ २५४ ॥ तत्प्रतिष्ठासमीपेऽस्य, चौरधाटिहेऽपतत् । रूप्याशीतिसहस्राणि,स्तेनितानि च तस्करैः ॥२५५॥ घोरचिन्ता समुत्पन्ना, श्रेष्ठिचित्ते ततस्तदा। तृतीये दिवसे तत्र, गुरुः शिष्यैः समाययौ ॥२५६॥