________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। तरुश्रेणी शुभा भाति, वन्यचौरादिसंकुले । तत्राऽरण्ये तपश्चक्रे, धोरं षष्ठाष्टमादिकम् ।। १८५॥ शर्वर्या पौषमासेऽस्थात् , कायोत्सर्गिकमुद्रया। तथैवाऽऽतापनां चक्रे, तप्तवालुशिलोपरि ॥ १८६ ॥ काञ्चित्तत्तुलनां पार्श्वे, श्रीधनविजयोऽपि सः। शिष्यज्येष्ठोऽकरोद्विद्वान्, यथाशक्त्यात्मसाधनम् रजन्यामेकदा तत्र, जन्यैः सार्धं च ठक्कुरः। वीक्ष्योत्सर्गस्थमेनं हि, तरुमूले विनाऽञ्चलम् ॥१८८॥ ततोऽपृच्छत्ससन्देह-स्त्वं कोरे ! विकटे वने । मौनवृत्त्या गुरुस्त्वस्थात्, शुमध्याने विनोत्तरम् १८९
एक समय गुरुमहाराज विचरते हुए मोदरा ग्राम पधारे, वहाँपर दुष्ट श्वापदों और चौरादिकोंसे व्याप्त वनके अन्दर आशापुरी देवीके मन्दिर समीप रमणीय वृक्षोंकी पंक्ति शोभित है । उसी वनमें गुरुजीने बेला तेला आदि बहुत कठिन तप किये । एक वक्त पौष मासकी रातमें कायोत्सर्ग मुद्रासे ध्यानमें खड़े थे, और ऊन्हालेमें दिनमें तपी हुई रेती व शिलाके ऊपर आतापना लेते थे, एक तर्फ पासमें ही शिष्योंमें बड़े और विद्वान् श्रीधनविजयजी भी यथाशक्ति आत्मसुधाराकी गुरु जैसी कुछ तुलना करते थे । एक वक्त वहाँ जानके साथ एक ठाकुर आया । वृक्षके नीचे वस्त्र रहित कायोत्सर्गस्थ उन गुरुको देखकर वह सन्देह युक्त पूछने