________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्चरी। १९-तीर्थोद्धृतिर्लुम्पकोपदेशश्चर्चा चजालोरे पत्तने दुर्गे, कुम्भश्रेष्ठिजिनौकसि । भटै राज्ञो भृते शस्त्रै-श्चापसारि समं ततः ॥१९४॥ श्रीयक्षवसतौ वीर-चैत्यं जीर्णत्वमागतम्। समुद्धारं प्रकार्यैव, संघेनैतद्वयोरपि ॥१९५॥ सूत्सवेन प्रतिष्ठा च, विधिनाऽनेन कारिता । शासनोन्नतिमित्थं स, चक्रे शक्त्या पदे पदे ॥१९६॥ पुरा सुन्दरदासोऽपि, जयमल्लसुतोऽत्र सः। हस्तचन्द्रमुनीलाब्दे, जीर्णं चार्वकरोन्मुदा ॥१९७॥ शीघ्रं निरुत्तरीकृत्य, शास्त्रयुक्त्या च सद्धिया । सप्तशतं गृहाँश्चक्रे, गुरुवादेऽत्र लुम्पकान् ॥१९८॥
फिर संवत् १९३३ का चातुर्मास शहर 'जालोर में हुआ, श्रीसंघको उपदेश देकर गढ़ ऊपर कुंभाशा शेठके बनवाये हुए ' चौमुखजी' के मंदिरमेंसे राजकीय सिपाही और उनके सारे सामान को निकलवाया। तथा यक्षवसतीमें वीरजिनेश्वर भगवानके मंदिरका भी जीर्णोद्धार करवाकर महोत्सवसे विधिपूर्वक दोनों मन्दिरकी प्रतिष्ठा करवाई। इस प्रकार गुरुमहाराजने यथाशक्ति स्थान स्थान पर जिनशासनकी महोन्नति की ॥१९५-१९६ ॥ पहिले भी इसी गढ़ पर संवत् १७१२ की सालमें जयमलजीके सुपुत्र