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श्रीराजेन्द्र गुणमञ्जरी ।
लगा - अरे ! इस भयंकर वनमें अकेला तूं कौन है ? परन्तु गुरुदेव तो उत्तर दिये विना ही अपने मौनवृत्ति से शुभ ध्यानमें अकेले खड़े थे ।। १८४ - १८९ ।।
सोऽनार्यः खङ्गमुत्पाट्य, मारणाय प्रधावितः । पार्श्ववर्त्तिव शिष्येण तदैवासौ निवारितः ॥ १९० ॥
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sa मे गुरवश्चैते, कुर्वन्त्यात्मसुसाधनम् | ततो मत्वा चमत्कारं, पादपद्मं ननाम सः ॥ १९१ ॥ भूयो भूयो निजागांस, क्षमयित्वा च तत्क्षणम् । मदिरामांसयोर्लेभे, नियमं शिष्यशिक्षया ।। १९२ ।। गुरुशिष्य ततो नत्वा, स्वस्थानं ठक्कुरोऽगमत् । एवं तत्र कियन्मासान्, तपस्यां विदधे गुरुः ॥१९३॥
थोड़ी देर के बाद वह अनाड़ी तो खड्ग लेकर मारने दौड़ा, उसी वक्त उसको निकटवर्ती उनके शिष्यने रोक दिया, और बोले कि अरे ठाकुर ! यहाँ मेरे गुरुमहाराज आत्मसाधन करते हैं, यह सुनते ही उसने आत्मामें बड़ा चमत्कार मानकर गुरुके चरणों में धोक देकर नमस्कार किया और वार वार अपने अपराधको क्षमाकर चेलाके सदुपदेशसे मदिरा मांसका त्याग लेकर गुरु-शिष्यको नमस्कार कर अपने स्थान पर गया । इस प्रकार गुरुमहाराजने मोदरा ग्राम के वनमें कइएक मास तक बड़े बड़े तप किये ।। १९०-१९३॥