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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। संवत् १९४४ थराद के चौमासेमें 'श्रीभगवतीसूत्र' व्याख्यानमें वाँचा-जिसका श्रीसंघने बड़ा भारी उत्सव किया और प्रतिप्रश्नोत्तरकी रोकड़ आदिसे पूजा की ॥२१०॥ यहाँ ग्यारह साधु और सोलह साध्वियाँ थीं। चौमासे बाद वीसस्थानक और नवपदजीके उद्यापन भी हुए ॥ २११ ॥ गुरुमहाराजने श्रीसंघको ऐसा उपदेश दिया कि शरीरादि कुल अनित्य हैं, लक्ष्मी अति चपल है, और शास्त्रोंसे तीर्थयात्रा के महान् लाभ बतलाये जैसे कि-तीर्थयात्रामें सब आरंभोंका रुकना, धन सफल होना, स्वसाधर्मि-वात्सल्य (भक्ति), सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट निर्मलता, प्रेमी जनकी हितवाँछा, जीर्ण मन्दिर आदिके उद्धार, जिनशासनकी उन्नति, जिनेन्द्रभगवानके वचनोंका परिपालन, तीर्थंकर कर्मोपार्जन, उत्तम देव व मनुष्यकी पदप्राप्ति, और नजदीकमें मोक्षपद पाना, ये सब तीर्थयात्राके फल हैं ॥ २१२-२१३ ॥ नमस्कारसमो मंत्रः, शत्रुञ्जयसमो गिरिः। वीतरागसमो देवो, न भूतो न भविष्यति ॥ २१४॥ एकैकस्मिन् पदे दत्ते, शत्रुञ्जयगिरिं प्रति । भवकोटिसहस्रेभ्यः, पातकेभ्यो विमुच्यते ॥ २१५ ॥ कृत्वा पापसहस्राणि, हत्वा जन्तुशतानि च। . . इदं तीर्थ समासाद्य, तिर्यश्चोऽपि दिवं गताः ॥२१६॥