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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। अपने शिष्यको मूरिमंत्र देकर 'श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरि' नामसे प्रख्यात किया ॥ ९८ ॥ ९९ ॥ उसी सुअवसर पर गुरुके प्रभावसे आहोरके ठाकुर-'श्रीजसवन्तसिंहजी' ने सहर्ष श्रीपूज्यजीको छड़ी, चामर, पालखी, सूरजमुखी, आदि भेंट किये ॥ १०० ॥ तदनन्तर श्रीपूज्य श्रीविजयराजेन्द्रसूरिजी महाराज अपने सुयोग्य यतिमण्डल सह पुर ग्रामादि विचरते हुए मेवाड़देशान्तर्गत ' श्रीशंभूगढ़ ' आए, यहाँ श्रीफतेसागरजीसे मिलाप हुआ, और यतिवर्यजीने सोत्सव राणाजीके कामेतीसे भेंट पूजा करवाई । बाद
१-आहोर का ठिकाना जोधपुरराज्य के प्रथम दर्जे के ताजिमी सरायतों में से एक है-जिसको प्रथम नम्बर का दीवानी फोजदारी हक, डंका निशान और सोनानिवेश का मान प्राप्त है। इस गादी के साथ ठाकुर जसवंतसिंहजीसे ही इस ठिकाने का अच्छा सहयोग रहा है । वर्तमान ठाकुर साहब रावतसिंहजीने भी अपने पूर्वजोंके समान आचार्यपदप्रदान महोत्सव पर आये हुए अगणित भावुकों के जानमाल की रक्षा का अच्छा प्रबंध किया । समय समय पर स्वयं पधार कर महोत्सव की शोभामें . अच्छी वृद्धि की । आचार्य श्रीयतीन्द्रसूरिजी महाराजके सदुपदेशसे संवत् १९९५ वैशाखसुदि ३ से ११ तक उत्सवके ९ दिनोंमें हिंसा रोकने, प्रतिवर्ष ४ बकरे अमर करने, सदाके लिये हिरणका शिकार बन्द रखने और प्रतिवर्ष वैशाखसुदि १० के दिन हिंसा व शिकार बन्द करने की उदारता प्रगट की जो धन्यवादके लायक है।