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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
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प्रतिक्रमण, सामायिक आदि निरवद्य धर्मानुष्ठानमें सदैव त्याज्य है, क्योंकि इस भावस्तवमें उस स्तुतिके करनेसे जिनेश्वरों की आज्ञाभंग रूप दोष लगता है ||
( ३ ) सूत्रोंकी पंचांगीके अनुसार तीन स्तुति ही प्राचीन है ।। १४८ - १५१ ।।
विस्तृताssसीद्धि सर्वत्र, सैव संघे चतुर्विधे । विधेयाऽतोऽखिलैः सद्भिर्भावानुष्ठानकेऽनिशम् ॥ १५२ पूजादौ पुण्यकार्ये तु चतुर्थी स्तुतिरागमे । नैव प्रोक्तापि गीतार्था -ऽऽचरणात्सा विधीयताम्। १५३
इसलिये पूर्वकालीन चतुर्विध श्रीसंघ में तीन स्तुति ही विस्तार रूप से प्रचलित थी, इस कारण मोक्षाभिलाषी उत्तम जीवोंको भावानुष्ठानमें हमेशा तीन स्तुतियाँ ही करना चाहिये ||
और चौथी थुई आगमोक्त नहीं होने पर भी गीतार्थी की आचरणासे पूजा, प्रतिष्ठाञ्जनशलाका, शान्तिस्नात्र आदि पुण्य कार्योंमें ही करना चाहिये ।। १५२ ।। १५३ ।। सच्चैत्यर्वेन्दनं कृत्वा, ततः शक्रस्तवादिकान् । प्रसिद्ध पंचसत्पाठ - त्रिस्तुति - प्रणिधानकान् ॥ १५४ ॥
यावत्सम्पादयेत्ताव-त्स्थेयमेव जिनौकसि | कारणेन ततोऽप्यग्रे, विद्यते शास्त्रसम्मतिः || १५५ ॥