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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
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थोभवन्दन से गुरु को वन्दन करके ' संदिसाउं ' इत्यादि आदेश मांगके 'करेमि भंते ! सामाइयं' इत्यादि सामायिकदंडक उच्चरके पीछे इरियावहि पडिकमण करे । फिर आगमन की आलोचना करके यथा ज्येष्ठ साधुओं को वांदकर पुस्तक पढ़े अथवा सुने ||
३ श्रावकधर्मविधिप्रकरण -
सामायिकं कार्यं श्राद्धैः सदा नोभयसन्ध्यमेव कथं १ तद्विधिना खमासमण दाऊं इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सामाइय मुहपत्तिं पडिलेहिमि त्ति भणियं बीयं खमासमणपुवं मुहपत्तिं पडिले हिय, खमासमणेण सामाइयं संदिसाविय, बीयमासमणपुवं सामाइयं ठावित्ति वुत्तुं खमासमणपुत्रं अद्भावणयगतो पंचमंगलं कड्डित्ता करेमि भंते ! सामाइयं इच्चाइ सामाइयसुत्तं भणइ पच्छा ईरियं पडिक्कमइ ।
श्रावकों को सामायिक सदा करना चाहिये, दोनों टाइम ही करना ऐसा नियम नहीं । किस विधि से १ इसके उत्तर में आचार्य विधि दिखाते हैं कि- खमासमण देके 'इच्छाकारेण संदि० सामायिक मुहपत्ति पड़िलेहूंजी ' ऐसा बोले, फिर खमासमण पूर्वक मुखवत्रिका की प्रतिलेखना करके इच्छामि खमा० इच्छाका० सामायिक संदिसाउं इच्छामि ख० इच्छाका० सामायिक ठाऊंजी' कहके खमासमण पूर्वक अर्द्धाविनत हो नवकार गिनकर ' करेमि भंते !