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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
तस्मादादौ सुयोगेन, वन्दित्वा विधिना गुरुम् । ततः सामायिकं कुर्यात्तत्पाठास्सन्ति चाऽऽगमे । १६३ ।
(७) ऋद्धिसम्पन्न - राजा, श्रेष्ठिवर्य आदि और ऋद्धि रहित - सामान्य पुरुष आदि इन दोनों श्रावकोंको सामायिकदण्डको चार के बाद ही हमेशा इरियावही करना चाहिये । उस कारण प्रथम शुद्ध त्रियोग से विधिके साथ गुरुको वन्दना किये बाद सामायिकदण्डक उच्चरे, इसलिये जिनागमों में उसके पाठ इस प्रकार हैं
आवश्यक सूत्रवृहट्टीका - १ इड्डित्तो सामाइयं करेइ, अणेण विहिणा करेमि भंते ! सामाइयं सावजं जोगं पच्चक्खामि जाव नियमं पज्जुवासामिति काऊण पच्छा ईरियं पडिकंतो वंदित्ता पुच्छति पढति वा ।
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ऋद्धिप्राप्त श्रावक सामायिक करे (तो) इस विधि से ( विधिपूर्वक ) करेमि भंते ! इत्यादि सामायिक पाठ उच्चरके इरियावही पडिक्कमण करे फिर गुरु को वंदन करके बैठे, सूत्रार्थ पूछे या पढ़े पढ़ावे ।। १६२ - १६३ ।।
२ श्रीविजय सिंहाचार्यकृत-श्रावक प्रतिक्रमणचूर्णि - 'वंदि - ऊण य छोभवंदणेण गुरुं, संदिसाविऊण सामाइयमणुकड्डिय ( जहा ) करेमि भंते ! सामाइयं ( इत्यादि ) तओ ईरिया पडिक्कमिय आगमणमालोएइ पच्छा जहाजेङ्कं साहुणो बंदिऊण पढइ सुणइ वा !!