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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। उपाध्यायके साथ तीन चार थुइ विषयिक चर्चा हुई। जिसमें आपश्रीने शास्त्रप्रमाणोंसे इस प्रकार जवाब दिये कि-तृतीयश्रीपंचाशकटीकामें चैत्यवन्दनविधि तीन स्तुतिसे कही है, चौथी थुइको 'किल ' शब्दसे साफ नवीन प्रकट की है।
१-श्रीमान् हरिभद्रसूरिकृत-तृतीय पंचाशक' और उस पर श्रीमान् अभयदेवसूरिकृत-टीका ऊपरसे संक्षेपमें गुर्जर भाषामय सद्गुणानुरागी-मुनिराज श्रीकर्पूरविजयजीने विक्रम सं० १९७३ की साल में 'शुद्धदेवगुरुधर्मनी सेवा-उपासनाविधि' नामक पुस्तकके पृष्ठ ३३-३४ वें की लिखी भाषा यहाँ ज्योंकी त्यों वांचकर निष्पक्षपाती सज्जनगण प्राचीन-अर्वाचीन तीन चार स्तुति करनेका यथायोग्य स्थान निर्णय करसकते हैं
(१) श्रीवर्धमानस्वामीने भावथी नमस्कार करी उत्कृष्ट मध्यम अने जघन्य रूप त्रण भेदे, मुद्रा विधानवड़े विशुद्ध एवं " चैत्यवंदनविधिन " स्वरूप (संक्षेपथी) कहीश.
(२) एक नमस्कार (स्तुति) वड़े जघन्य चै० जाणवू. "अरिहतचेइयाणं;" रूपदंडक पछी एक स्तुति कहेवा वड़े अथवा शक्रस्तव; अरिहंतचेइआणं; लोगस्स; पुक्खरवर० अने सिद्धाणं० रूप पांच दंडको अने प्रसिद्ध चार थोइओ वड़े मध्यम चै० जाणवू, तथा उत्कृष्ट चैत्य० प्रसिद्ध पांच दंडको साथै त्रण स्तुतिओ तथा जय वीयरायना पाठथी थाय छे ( चतुर्थ स्तुति अर्वाचीन ज छे)