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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
अर्थात् चैत्यमें उत्कृष्ट चैत्यवंदना तीन स्तुति से ही बतलाई है, और जघन्य मध्यमभेद भी बतलाये हैं ।
तेमज बीजा आचार्यो एम कहे छे के पांच शक्रस्तवना पाठयुक्त चैत्य० संपूर्ण कहेवाय. मतलब के पौषधादिकमां आजकल जे चैत्य० प्रचलित छे ते उत्कृष्ट, अने प्रतिक्रमण समये जे चैत्य ० विधि प्रचलित छे ते मध्यम चैत्य० जाणवुं. ते पण • पांचे अभिगम ' ' त्रण प्रदक्षिणा ' तेमज पूजादि विधान संहित करवुं. एवी रीते चैत्यवंदना ऋण प्रकारे समजवी ( ये दरेकना पाछा ऋण ऋण भेद थइ शके छे )
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" अथवा प्रकारान्तरे तेना त्रण भेद बतावे छे
(३) अथवा सामान्य रीते अपुनबंधक विगेरे योग्य जीवोना परिणाम विशेष अथवा गुणस्थानक विशेषथी सर्वे जघन्यादि प्रकारवाली चैत्यवंदना त्रण प्रकारे जाणवी. एटले अपुनबंधने जघन्य, अविरति सम्यग्दृष्टिने मध्यम, अने विरतिवंतने उत्कृष्ट, अथवा अपुनर्बंधक प्रमुख दरेकने पण परिणाम विशेथी ते त्रणे प्रकारनी चैत्य० जाणवी |
और श्रीआत्मारामजीकृत - जैनतत्वादर्श में भी जिनमंदिर में तीन स्तुतियाँ करने का ही साफ २ लिखा है, पृष्ठ ४२३, पंक्ति १४, परिच्छेद ९ वें और यह ग्रन्थ संवत् १९५६ की साल भावनगर में छपा है ।