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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
लिखवाये, इस प्रकार अन्यत्र भी अनेक स्थानों में ज्ञानवृद्धि की ।। १४४ ।। १४५ ।। १४६ ।। १४७ ॥
१६ - गुरुनिर्णीतनवसिद्धान्त - संक्षिप्तस्वरूपम् -
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तस्याssसन्नवसिद्धान्ता, नतिस्तुत्योश्च वन्दनम् । अव्रतिनां सुरादीनां वन्देनं नैव युज्यते ॥ १४८ ॥ तत्पार्श्वे याचनाsयोग्या, निषेधत्वाजिनागमे । कर्ममान्यो जिनो धम्मों, निराशी सोडत उच्यते १४९ तुर्यस्तुंत्यां सुतद्रव्य- कान्तादिसुखमार्गणम् । पौषurssasaraौ त - द्वेयं भावस्तवे सदा || १५० || यतोऽस्मिन् तद्विधानेन, जिनाज्ञाभञ्जनं भवेत् । त्रिस्तुतिः सूत्र पंचांग्य-सृत्यैव पुरातना ॥ १५१ ॥
गुरुमहाराज के नव सिद्धान्त थे वे क्रमसे ये हैं
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( १ ) चन्दन शब्द नमस्कार और स्तवना करने अर्थ में है, इसलिये व्रतीको अत्रती देव देवी आदिका वन्दन करना अयोग्य है और जिनेश्वरोंके सूत्रोंमें मनाई होनेसे उनके पास याचना करना भी अनुचित है, इसीलिये जैनधर्म कर्मप्राधान्य, और निराशी ही कहाता है ।
( २ ) चौथी थुई में पुत्र धन रमणी आदि अनित्य पौगलिक सुखोंकी याचना भरी है, इसलिये वह पौषध,