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श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
और युवावस्था, धनादि संपद्, मालिकपन, और निर्विवेकपन, इनमें से एक-एक भी अनर्थके लिये होते हैं तो फिर जहाँ चारों का संयोग मिले तो वहां अनर्थ होनेका पूछना ही क्या ? ॥ ९२ ॥ उस मौके पर इस इनके विषयमें श्रीपूज्यजी और पंन्यासजी के बहुत ही विवाद बढ गया, विवादके अन्तमें श्रीपूज्यजीने व्यर्थ मर्मका वचन भी कहा, जैसे कि जो तेरी बलवती शक्ति हो तो जा तूं भी श्रीपूज्य बनजा, तब उसी वक्त पंन्यासजीने श्रीपूज्यजीको नत्र प्रकारकी गच्छ - मर्यादामें लाने वास्ते मनमें ही शुभ विचार करलिया ॥९४॥
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अपि च त्रयः स्थानं न मुञ्चन्ति, काकाः कापुरुषा मृगाः। अपमाने त्रयो यान्ति, सिंहाः सत्पुरुषा गजाः ॥ ९५ ॥ वार्तालापं मिथः कृत्वा, सद्बुद्ध्या सन्नरोत्तमः । ततः प्रमोदरुच्यादि-श्रीधनविजयैस्सह आहोरं विहरन्नागात्, प्रमोदगुरुसन्निधौ । भूतपूर्वश्च वृत्तान्तो, गुर्वग्रे तेन सूदितः ११ - श्री पूज्यपदप्राप्तिर्जावराचतुर्मासी चगुरुः श्री पूज्यशिक्षायै, संघेन सह संमतिम् । कृत्वोत्सवेन शिष्याय, सूरिमन्त्रं वितीर्य च ॥ ९८ ॥
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फिर मनमें सोचा कि - कौआ, कायरपुरुष, और हरिण, ये तीन अपमान होने पर भी स्थान नहीं छोड़ते हैं, लेकिन